भक्ति की योग्यता
बहुत ही सामान्य सा शब्द । सुना सुना या जाना पहचाना, लेकिन कितना गहन चिंतन है, कितनी विस्तृत व्याख्याएं हैं, कितना विस्तार है ।
यदि समझने लगे, समझाने लगे तो पूरा का पूरा एक जीवन कम पड़ जाए ।भक्ति की तीन अवस्था हैं
जैसे बचपन, जवानी, बुढ़ापा । उसी तरह
साधन भक्ति
भाव भक्ति
प्रेम भक्ति साधक सर्वप्रथम प्राथमिक साधन भक्ति के बारे में परिचय लेता है । साधन भक्ति को जानता है, फिर साधन भक्ति को आचरण में लेता है । भाव भक्ति स्वत उदित होती है । भाव भक्ति के बाद प्रेम भी स्वतः ही उदित होता है ।
बहुत से लोग शुरू ही प्रेम से करते हैं ।ढाई आखर प्रेम का वह बेचारे यह नहीं जानते हैं कि प्रेम का धरातल क्या है, प्रेम की नियम क्या है, कोई भी आदमी बुड्ढा पैदा नहीं हो सकता ।बचपन से ही उसकी नींव बनती प्रारम्भ होती है । बचपन मजबूत होता है । बचपन में ही शिक्षा दीक्षा और फिर युवावस्था फिर वृद्धावस्था मैच्योरिटी परिपक्वता ।भक्ति के विषय में बड़ी-बड़ी व्याख्याएं शास्त्रों में ग्रंथों में विद्वानों ने प्रस्तुत की है लेकिन छोटी-छोटी बातें भी भक्ति के विषय में बहुत वर्णित हैं मानव के मनोविज्ञानिक स्वभाववश हम बड़ी बड़ी बातों को पकड़ते हैं ।अरे बात ही तो करनी है तो बड़ी क्यों ना की जाए । लेकिन सच यह है बहुत बड़ी बात बनाने से अच्छा है छोटी बात पर आचरण किया जाए ।
!["Bhakti ki Yogyta" "भक्ति की योग्यता"](https://static.wixstatic.com/media/6114cd_4de79bdc422c48ab9234490719155544~mv2.jpg/v1/fill/w_980,h_513,al_c,q_85,usm_0.66_1.00_0.01,enc_auto/6114cd_4de79bdc422c48ab9234490719155544~mv2.jpg)
भक्ति के 64 अंग हैं । भक्ति का एक विकास क्रम है । सबसे पहले श्रद्धा होती है । साधु संग होता है । भजन प्रारंभ होता है । अनर्थ की निवृत्ति होती है ।कुछ विशुद्ध भक्ति है । कुछ आरोप सिद्ध भक्ति है । भक्ति जैसी लगती है भक्ति है नहीं । कुछ स्वरूप सिद्ध भक्ति है जिसमें से श्रवण कीर्तन स्मरण पादसेवन वंदन आदि साक्षात भक्ति है ।इनमें से किसी एक का भी श्रद्धा सहि्त् आश्रय लिया जाए तो भक्ति में सफलता प्राप्त होती है ।भक्ति का सीधा सा अर्थ है सेवा । जिसकी भक्ति उसकी सेवा । देश की भक्ति देश की सेवा । पिता की भक्ति पिता की सेवा । माता की भक्ति माता की सेवा । कृष्ण की भक्ति कृष्ण की सेवा ।हम श्री कृष्ण भक्ति की बात करेंगे । भक्ति का अर्थ स्पष्ट है सेवा करना । आजकल तो सेवा कर के तनख्वाह वेतन लिया जाता है वह सेवा नहीं ।
श्रीकृष्ण को सुख देने के लिए जो सेवा की जाती है वह भक्ति । आनुकूलयेन् कृष्ण अनुशीलन भक्ति रुत्तमा । कृष्ण की अनुकूलतामयी सेवा करके उनको सुख प्रदान करना उत्तम भक्ति है ।भक्ति भी एक डिग्री है । भक्ति प्राप्त करने से पहले एक भक्त को भक्ति प्राप्त करने की योग्यता लेनी पड़ती है ।पहले वह भक्त बनने के योग्य होता है फिर वह भक्ति करता है उस योग्यता को ही बन्ाने के लिए साधन भक्ति है । विशुद्ध भक्ति प्रेम भक्ति है साधन भक्ति तक व्यक्ति योग्यता प्राप्त करता है । योग्यता प्राप्त करके उसमें भक्ति का भाव जागृत होता है भाव ही जब प्रेम बन जाता है तब वह विशुद्ध भक्ति बन जाती है ।साधन भक्ति में सर्वप्रथम आवश्यक है कि भक्ति मार्ग में उसकी श्रद्धा हो । श्रद्धा होने के बाद वह ऐसे साधुओं का ऐसे लोगों का संग करें जिनमें पहले से ही अटूट श्रद्धा है । उनका संग करने से वह साधु लोग इसको बताएंगे कि भक्ति करने के लिए हमें क्या क्या करना चाहिए ।भक्ति की योग्यता प्राप्त करने के लिए हमें श्री गुरुदेव की शरणागत होना पड़ेगा । गुरुदेव के शरणागत होने से वह हमें बताएंगे कि शरीर पर तिलक कैसे और कितने प्रकार से लगाना चाहिए ।आरती कैसे और क्यों करनी चाहिए । श्रीविग्रह की सेवा या चित्रपट की सेवा कैसे करनी चाहिए पहले चंदन चरण पर और किसके चरण पर और किस के मस्तक पर लगाना चाहिए कैसे वस्त्र धारण कराने चाहिए । कितनी माला करनी चाहिए । माला मोटे दाने की ओर से करनी है या छोटे दाने की ओर से शुरू करनी है इस बात का ज्ञान होना चाहिए । एक साधक का भोजन कैसा होना चाहिए । एक साधक का व्यवहार कैसा होना चाहिए ।वाणी पर संयम रखना चाहिए । भोजन सात्विक होना चाहिए । भोजन की मात्रा अल्प होनी चाहिए । यह सारी छोटी-छोटी बातें सीखने के बाद धीरे धीरे उसे आगामी कक्षा में प्रवेश की योग्यता प्रदान की जाती है ।दीक्षा लेनी चाहिए दीक्षा के लिए शिष्य में क्या गुण होने चाहिए और गुरु में क्या गुण होने चाहिए । दीक्षा के बाद गुरु की सेवा करके उनकी कृपा प्राप्त करनी चाहिए फिर जिस प्रकार गुरुदेव भक्ति का आचरण करते हुए हमें आदेश देते हैं वैसे ही हमें आचरण करना चाहिए ।जो समझ में न आए तो गुरुदेव से प्रश्न करने चाहिए । भजन यदि करना है ईमानदारी से तो लौकिक और सांसारिक सुखों का त्याग करना होगा ।भोजन या वस्त्र केवल मात्र उतना ही लेना है जिससे शरीर चलता रहे और भजन होता रहे ।दूसरा इसका अर्थ है जो मान योग्य नहीं भी है उसको भी मान दो । अर्थात उसमें भी अपने सियाराम मय सब जग जानी मान कर उसका भी अपमान मत करो ।यह भक्ति का स्वाभाविक लक्षण है । यदि भक्ति को नाटक से ढका नहीं गया है भक्ति को मनोरंजन से ढका नहीं गया है भक्ति को प्रतिष्ठा से ढका नहीं गया है तो भक्ति का यह गुण सहज ही प्रकट हो जाता है और यदि नहीं हो रहा है तो सच मानिए हमने इस भक्ति के आचरण को किसी भी अन्य इच्छा से आवृत कर रखा है ।इसलिए भक्ति का प्रथम गुण विनम्रता हम में नहीं आ रहा है । विनम्रता आते ही राग और द्वेष स्वत ही समाप्त हो जाते हैं यह सिद्धांत है ।जब आप अपने आप को सबसे छोटा समझेंगे तो ना तो आपका किसी के प्रति द्वेष होगा और ना आपका किसी के प्रति राग होगा ।द्वेष होना जितना खतरनाक है राग होना उससे भी अधिक खतरनाक है । अतः हम अपने आप को चेक करते रहें । समय-समय पर जब अहंकार की बात आए मन में, तो झटका दें अपने आप को और कोशिश करें कि विनम्रता को धारण करें ।समस्त वैष्णव वृंद को दासाभास का प्रणाम ।
।। जय श्री राधे ।।
।। जय निताई ।। लेखक दासाभास डॉ गिरिराज
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